Tuesday, November 28, 2017

जिंदगी का किरायानामा...

देश के शांत और खूबसूरत शहरों में शुमार राजा भोज की नगरी भोपाल का व्यस्ततम इलाका, एमपी नगर. किरायानामा बनवाने के लिए यहां एक स्टांप की दुकान पर रुकी, स्कूटी पार्क की और अंदर दुकान की ओर बढ़ गई. सामने एक महिला बैठी थी, जिसे देखकर खयाल आया कि ओह.. जल्दी आना हो गया. शायद स्टाफ अभी आया नहीं होगा. कौन टाइप करेगा, मेरा काम हो पायेगा कि नहीं. जाहिरा तौर पर एक महिला स्टांप, टाइपिंग सरीखे कामों को करती प्रोफेशनल दुकानों पर नहीं दिखती, इसीलिए ये खयाल जेहन में पहली नजर में आया. जैसे ही मोहतरमा से बात हुई, कि  किरायानामा बनवाना है, बड़े ही प्रोफेशनल अंदाज में उन्होंने कहा- ''कहीं सरकारी कामकाज में यूज लेना है तो, 800 रुपए लगेंगे. किराये के मुताबिक स्टांप ड्यूटी देनी होगी. और अगर आपके और किरायेदार के बीच एग्रीमेंट के लिहाज से बनना है तो 100 रुपए के स्टांप पर किरायानामा बनेगा. जिसके 300 रुपए लगेंगे.''
मैडम का प्रोफेशनल अंदाज पसंद आया. इसे सुनकर कहीं नहीं लगा कि डिस्काउंट की बात की जाए. क्योंकि ढेरों कंप्यूटर जॉब वर्क वाले और कोर्ट, डवलपमेंट अथोरिटी या ट्रांस्पोर्ट डिपार्टमेंट के बाहर हर पेज, हर शब्द की टाइपिंग के जाल में फांसकर इससे कहीं ज्यादा भी रुपया ऐंठ ही लेते हैं. बहरहाल.. डीटेल बतानी शुरू हुई और किरायानामा बनना शुरू हुआ. बात ही बात में बातें होने लगीं. 'काफिल आज़िर ने गज़ल लिखी है, जिसे जगजीत ने गाया है, बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी...' यहां भी बात इतनी दूर जाएगी, रत्ती भर भी एहसास न था. अब इस किरायानामा बनाने वाली महिला के बारे में सुनिए, आपको अच्छा लगेगा, एक नज़ीर मिलेगी.. और लगेगा कि लोग क्या-क्या संघर्ष कर रहे हैं, कैसे कर रहे हैं, हम खामखां में ही अपने दुखड़े रोने लगते हैं.
सटासट टाइपिंग कर रही बबीता यादव पहले बबीता शर्मा थीं. कम उम्र में ही मोहब्बत हो गई. शादी करनी चाही. घरवाले साथ नहीं थे, तो प्रेम विवाह किया. उपनाम शर्मा से यादव हो गया. अभी बसंती बहार ढंग से देखी भी न थी कि एक एक्सीडेंट में इनकी पति चल बसे. 24 साल की उम्र में ये आघात. लव मैरिज करने वाली ये महिला अब अकेली.. और साथ में एक बच्चा. कोई रोशनी की किरण नहीं, बस अंधकार ही अंधकार.. नाती रिश्तेदार.. घर परिवार वालों का बहुत जिक्र यहां नहीं, क्योंकि वो तो शादी से ही खफ़ा थे.
किसी की सिफारिश पर किसी ऑफिस पहुंची. वहां पहले दिन काम दिया गया, कंप्यूटर पर टाइप कीजिए. इससे पहले बस हल्का सा कंप्यूटर खोलने बंद करने का अनुभव था. कहने वाले कहते हैं, हिन्दी टाइपिंग इतनी आसान भी नहीं. और पहली बार नौकरी के पहले ही दिन किसी को हिन्दी टाइपिंग के लिए बैठा दिया जाए तो समझिए, मनोबल का चकनाचूर होना लाजमी है. इस लेख को टाइप करते हुए मुझे भी अपने पहले दिन की टाइपिंग याद आ रही है, जब एक-एक अक्षर बाजू वाले से पूछकर टाइप किया जा रहा था. कमोबेश यही आलम बबीता शर्मा उर्फ बबीता यादव के साथ रहा. घंटे भर में एक पहराग्राफ भी टाइप न हो सका. सिफारिश सिफर रही.. साथ में एक टिप्पणी भी मिली- ''इस तरह तो तुम जिंदगी में कभी टाइप नहीं कर पाओगी...'' अंदर की सहमाहट, डर में बदल गई, आत्मबल के टुकड़े हो गए, कुछ कर गुजरने की तमन्ना काफुर हो गई, आंखों से बहते आंसुओं में उम्मीदें कहीं धुल गईं...
लेकिन बबीता ने हार न मानी. बबीता ने कोई और काम भी नहीं चुना. पति की एक दुकान थी, पगड़ी पर ली हुई (जिसका आज भी केस चल रहा है). दुकान पर बैठना और टाइपिंग सीखना शुरू किया. लगीं रही खुद से.. धीरे-धीरे लोग आने लगे.. काम आने लगा.. स्पीड बनने लगी.. टाइपिंग की भी और उम्मीदों की भी. इस रफ्तार के बीच एक जिक्र और लाजमी है. अकेली औरत और लोगों की नजरें. जी हां, ये फिल्मी डायलॉग नहीं, हमारे समाज की हकीकत है. पुरुष हावी समाज में हम उन्हें ही कहां रोक पा रहे हैं, तो नजरें कैसे रोकें. बड़ा आसान था कहीं भी सरेंडर हो जाना और अपने और बच्चे के संघर्षों का अंत कर लेना. पर बबीता ने इस मानसिक और शारीरिक जंग को जीता. लगी रहीं, टाइपिंग में. आज उनकी इलाके में मिसाल दी जाती है. किसी को भी जल्दी से टाइपिंग जॉब करवाना हो तो, बबीता के पास ही आता है. 
बबीता का बेटा अब बड़ा हो गया है, कॉलेज में पढ़ रहा है. मां का संघर्ष देख, अब कुछ बड़ा करने की हसरत रखता है. बबिता ने कुछ महीने पहले ही दूसरा विवाह किया है. मांग में सिंदूर फिर से खुशियां लाया है. बधाई के पात्र हैं उनके नये जीवनसाथी, जिन्होंने बबीता के दफ्तर में लगी पहले पति की तस्वीर हटाने की बात भी न सोची. आज भी आप बबीता की कुर्सी के साथ, पहले पति की तस्वीर पायेंगे और कंप्यूटर की-बोर्ड पर ठक ठक करती उंगलियों के साथ उत्साह और जीवट की एक नजीर...
बबीता इतनी महान नहीं, कि उनका जिक्र कहीं किन्ही पन्नों में दर्ज हो, लेकिन उनका जीवट महान है. उनकी लगन प्रेरणादायी है. ऐसी छोटी-छोटी कहानियां, हमारे आस पास की जिजिविषाएं, हमें स्फूर्त बनाती हैं, हमें छद्म दुखों से बाहर आकर लड़ने का हौसला दिलाती हैं. कीप इट अप बबीता, तुम खुद तुम्हारे साथ हो, तुम्हारा हौसला तुम्हारे साथ है.
https://www.facebook.com/JournalistAmitSharma

Tuesday, September 12, 2017

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ

अमित शर्मा- 11-09-201


फूलों सी नाज़ुक होती हैं
बेटियां
मखमल सी मुलायम होती हैं
बेटियां
आंगन की पवित्र तुलसी होती हैं
बेटियां
सुबह की पहली भोर होती हैं
बेटियां
सुख का अहसास होती हैं
बेटियां
दुख का हर लम्हा मुस्कुराकर भगा दें
बेटियां
परिवार का अभिमान होती हैं
बेटियां
देश की शान हैं हमारी प्यारी
बेटियां

फिर क्यों इन बेटियों पर ज़ुल्म होते हैं ?
फिर क्यों इन मासूमों के कोख़ में कत्ल होते हैं ?
क्यों हमें दहेज के लिए जलाते हो ?
क्यों हमारे चेहरे पर तेज़ाब फिंकवाते हो ?

ये सवाल मेरा  आपसे है,
आप से, आप से और आप से

ज़रा देखो चारों ओर,
क्या हम आज़ाद हैं ?
क्या हम समान हैं ?
रखो अपने दिल पर हाथ,
कसम खाओ सब मिलकर आज

अब बेटियों को भी मिलेगा मान
बेटा-बेटी को मानो एक समान
आओ सब मिलकर गाओ
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ

Sunday, March 15, 2009

उफ ये विज्ञापन!

-अमित शर्मा-
मैं अपने दोस्त के घर बैठा गपशप लड़ा रहा था कि अचानक अखबार पढ़ते पढ़ते उसकी मम्मी हंसी। उनके ही पास बैठे दोस्त के पिता ने कहा `क्या हुआ, क्या पढ़ लिया?´ आंटी ने अखबार में देखते हुए ही कहा `बन जाओ पति नम्बर वन´ ये छपा है। उसके आगे लिखा वाक्य पढ़कर न सिर्फ उनकी हंसी गायब हो गई बल्कि एक झेंप मिçश्रत भंगिमा भी देखने को मिली, क्योंकि हम बच्चे वहां बैठे थे। अखबार में आगे लिखा था, अपनाइए जापानी तेल....
अब तक जिस वाक्य को वो किसी खबर या फिल्म के नाम की तरह लेते हुए सबकों हंसाने के मूड में थी उस पति नम्बर वन के विज्ञापन ने हम सभी को शमिZदा कर डाला।
कमोबेश यही हाल आज मीडिया के हर माध्यम पर देखने को मिल रहा है। चाहे वह समाचार पत्र हों या फिर टेलीविजन। यहां तक रेडियो भी इस फूहड़ कमाई की नव-मार्केüटिंग से ग्रस्त हो गए हैं। मैं आपको मेरे बचपन का ही एक किस्सा यहां संदभाüनुसार बताता हूं। आज से तकरीबन दस साल पहले, जब अधिकांश घरों में एंटीने के मार्फत दूरदर्शन ही देखा जाता था तब रविवार को किसी चर्चित सय धारावाहिक के बीच, तब तक असय धारावाहिकों की संख्या नगण्य ही थी, एक सेनेट्री नैपकीन का विज्ञापन आया। मैं जिस घर में बैठ कर टीवी देख रहा था वहां थर्ड क्लास में पढ़ने वाली बच्ची ने मेरी मौजूदगी में अपनी मम्मी से पूछ लिया कि मम्मी यह क्या होता हैै? तब उस सवाल का जवाब मैं भी नहीं जानता था। आंटीजी ने बखूबी उस सवाल को टाला। आज महसूस होता हैै कि शायद उस उम्र के बच्चे को कोई भी पेरेन्ट्स उस सवाल का जवाब नहीं दे सकते। सिर्फ टाला ही जा सकता हैै। पर आज। आज तो हर चैनल के हर कार्यक्रम में इन विज्ञापनों की बहार है। कब तक टालेंगे? और विज्ञापनों का स्तर भी आज इतना çछछोरा हो चला हैै कि न कहने को कोई शब्द हैैं न ही बोलने को। कंडोम के विज्ञापन बेहद अश्लीलता और बेबाकी से चैनल्स पर आ रहे हैैं। पुरुष साथी के बिस्तर पर मदहोशी से समाती स्त्री को दिखाते हुए एक्स्ट्रा टाइम, मस्ती, सही समय जैसे फूहड़ कैैच वर्ड देकर जो दृश्य माध्यम का माहौल उड़ाया जा रहा हैै, वो नितांत शर्मसार कर देने वाला है।
यही नहीं समाचार पत्र को एक बार फिर केçन्द्रत करना चाहूंगा। पहले मदाüनी शक्तियों का दावा करने वाले विज्ञापन पहले सिर्फ मैग्जीन्स में देखने को मिलते थे। फिर समाचार पत्रों के कुछ विशेष पृष्ठों पर सीमित रहे। पर आज की हालात निहायत ही शर्मनाक हैं।
और तो और एफएम चैनल भी रुपया बटारने की इस वाहियात मार्केटिंग में नग्न होते जा रहे हैं। ऑफिस आते समय जब एमएम सुन रहा था तो एक चैनल पर सांडे के तेल को इस तरह से बेचा जा रहा था जैसे बोनविटा सरीखा पुष्टीवर्धक पाउडर बेच रहे हों। मैं तो सिर्फ यही कहना चाहूंगा.... उफ! ये विज्ञापन, तौबा-तौबा!

अमित शर्मा
9829014088

आलोचकों की जहर सरिता में मीडिया का स्नान संस्कार

आलोचकों की जहर सरिता में मीडिया का स्नान संस्कार

-अमित शर्मा-

हम पत्रकार हमेशा से ही आलोचना का शिकार रहे हैं। फील्ड से ज्यादा अखबारी कटघरे में भी दुनिया जहान के लिए संघर्ष करने के बाद भी हम आलोचना का शिकार होते आए हैं। हमारे पीठ पीछे तो हमारी बिरादरी की आलोचना प्रति सैकेंड सैंकड़ो जिव्हाओं से होती ही रहती है लेकिन यहां जिक्र कर रहा हूं, मीडिया के औपचारिक आलोचना समारोह की। जीं हां, आप सही समझे। मेरा इशारा ऐसी संगोष्ठी की ओर है जिसका विषय तो मीडिया के साथ फलां फलां जोड़ कर चिंतन का बताया जाता है लेकिन वहां होती विशुद्ध रूप से मीडिया की आलोचना ही है।
मार्च के पहले शनिवार को यहां जयपुर की सांस्कृति हृदयस्थली जवाहर कला केन्द्र की एक कला दीघाZ में ऐसी ही संगोष्ठी रखी गई। भोपाल के प्रख्यात चित्रकार प्रभु जोशी ने इस गोष्ठी का आयोजन रखा था। अपनी पेेंटिंग एग्जीबिशन के लिए जोशी जयपुर आए हुए थे और वहीं उन्होंने अपने कला जगत के मित्रों के गेट टु गैदर के लिहाज से यह संगोष्ठी रख ली। इससे पहले की गोष्ठी का लाइव टेलिकास्ट करूं, प्रभू जोशी से मेरे परिचय की कहानी में बता देता हूं, ताकि मेरे जहन में जो उनका प्रतिबिम्ब था वो भी सामने आ जाए। करीब ढाई वर्ष पूर्व जब मैं बंगलौर पत्रिका में चीफ रिपोर्टर था तब मेरा एक रिपोर्टर आउटलुक का ताजा अंक मेरे पास लाया और कहने लगा हिन्दी भाषा के मौजूदा स्वरूप पर क्या कमाल का आर्टिकल छपा है। आउट लुक के लगभग मध्य पृष्ठों पर छपे इस दो पेज के आर्टिकल के पहले ही अनुच्छेद ने इतनी उत्तेजना और उत्सुकता भर दी की उसे जोर जोर से बोलकर पढ़ना और भाव को गहराई से समझना जरूरी हो गया था। उस लेख में बाजारवाद का शिकार होते अखबार और औपनिवेशवाद का शिकार होती हिन्दी का जिक्र कमाल की बेबाकी से किया गया था। लेख को लिखने वाले स्थान पर प्रभू जोशी का नाम था। नाम के साथ कोष्टक में छपा था, लेखक प्रख्यात चित्रकार हैं। उस लेख से मैं इतना प्रभावित था कि हिन्दी भाषा से संबंधित हर व्याख्यान, या अकसर दफ्तर मे होने वाली चर्चा में उसका जिक्र छेड़ देता था। कुछ दिन पहले अखबार के उन हाई क्लास बताए जाने वाले पेज थ्री टाइप सप्लीमेंट्स को टटोल रहा था, जिसे बुद्धिजीवी वर्ग पढ़ना तो क्या देखना भी पसंद नहीं करता। इन्हीं कलात्मक खबरों वाले पृष्ठों पर छपा था कि प्रभू जोशी के चित्रों की प्रदशZनी कल से जयपुर में। अब इन बीते सालों में मुझे बस इतना ही याद रहा कि वो यादगार लेख प्रभू जोशी ने ही लिखा था। सोचा चलकर देख लिया जाए। अगर अलौकिक शब्दों को लिखने वाले हाथ हुए तो चूम लेंगे, नहीं तो एिग्जबिशन देखकर लौट आएंगे, यही सोच कर मैं जवाहर कला केन्द्र पहुंचा। यहां प्रभू के हाव भाव देख कर ही अंदाजा हो गया कि ये वही शख्स हैं। कॉफी हाउस में चाय की चुस्कियों और सॉस में डुबोकर कटलेट खाने के दौरान उन से हिन्दी भाषा को लेकर काफी बातें हुई। अब जब मीडिया व कला जगत पर गोष्ठी के लिए उनका फोन आया तो शुक्र मनाया कि गोष्टी शनिवार को है और साप्ताहिक अवकाश के चलते वहां पहुंचा जा सकता है।
अब बात अपनी आलोचना की, मेरा मतलब गोष्टी से है। गोष्टी की शुरूआत प्रभू ने अपने उसी आउटलुक के लेख के शब्दों से की, कि बाजारवाद की टेन प्लेटफार्म पर खड़ी है,.........। शायद मुझसे मिलकर उन्हें अपना लिखा पुन: स्मरण में आ गया होगा। गोष्ठी का क्रम कलाकारों की कटु चर्चा के साथ शुरू हुआ। मजे की बात यह है कि पहले वक्ता का पहला वाक्य था आज मीडिया कहां है, किस दिशा में है! और अंतिम वक्ता का अंतिम वाक्य भी यही था कि एकदम लापरवाह मीडिया के हाथों में आज की कला कलंकित हो रही है। ख्ौर, इतनी जल्दी अंत तक पहुंचना उचित नहीं होगा। पहले वक्ता के पहले वाक्य से ही दिमाग में कौंधने लगा कि इन्हें तुरंत जवाब दूं और बताउं की मीडिया यदि इतना बेपरवाह होता तो स्थिति आज की परिस्थितियों से एक हजार गुना खराब होती। लेकिन कुछ बोलने से पहले ही यह सोचकर चुप हो गया कि सबको बोलने दो फिर अपनी बात रखूंगा। लेकिन जनाब, तीसरे वक्ता के जहर उगलते उगलते तक तो मेरी कम उम्र ने जतला दिया वो अब तक के अर्जित अनुभव पर भारी है। और मैं बीच में बतौर मीडिया प्रतिनिधि बोलने लगा। अब तक के वक्ताओं की शिकायत नौसीखिए पत्रकारों से थीं। मैंने जवाब दिया कि जैसे एक चित्रकार नई कूची को कैनवास पर आने से नहीं रोक सकता, एक इतिहासकार सड़कछाप लेखक को बेहूदा कविता लिखने से नहीं रोक सकता। ठीक ऐसा ही हमारे तबके में है, हम नए या यू कहें कि नादान ग्लैमर-आकांक्षी पत्रकारों को इस जमात में आने से नहीं रोक सकते। अब तक उठे कई सवालों का मैंने स-तर्क जवाब दिया। पर साहब एक महिला चित्रकार ने तो यह कहकर मेरी जुबान ही बंद कर दी कि हमें इससे क्या मतलब कि आप पर कितना प्रेशर होता है, एक कलाकार तो सिर्फ अपनी कवरेज चाहता है। उन्होंने जब यह कहा कि संगीत की खबरें तो फिर भी बहुत छप जाती हैं लेकिन हम चित्रकारों की बहुत कम, तो मुझे लगा कि यहां तो कला में ही सरहदें खींच ली गई हैं, इनको जवाब देने का भी भला क्या औचित्य! ख्ौर, मेरे आक्रामक तेवर देखकर प्रभू ने गोष्टी की दिशा साहित्य की ओर मोड़ दी और राजस्थानी लेखक हरीराम मीणा को बोलने के लिए कहा। इससे पहले दूरदशZन के पूर्व निदेशक नंद भारद्वाज, चित्रकार एकेश्वर हटवाल और विनय शर्मा बोल चुके थे। मेरी बात बीच में काटने वाली महिला चित्रकार मीनाक्षी भारती थी। गोष्टी आगे बढ़ती गई। हमारी जमात पर तीर चलते गए। सभी कला व साहित्य जगत के स्थानीय धुरंधरों ने जमकर जहर उगला। ऐसा लगा जैसे कि आजकल के अखबारों की तरह उन्हें भी बस सब गलत ही गलत दिख रहा है, कहीं कुछ अच्छा है ही नहीं। यकीन मानिए मैं उन लोगों से ज्यादा अब खुद को कोस रहा था। इसलिए नहीं कि मैं यहां क्यों आया, बल्कि इसलिए कि मैं बीच में क्यों बोला, मुझे तो इस मीडिया विरोधी चक्रव्यू को अंत में तोड़ने के लिए कृतसंकल्पित रहना था। वक्ता अरोप लगाए जा रहे थे और वहां मौजूद `मैं` `मीडिया`, पिसता चला जा रहा था। एक दो बार दोबारा‘शमा अपने आगे रखवाने का भी विचार आया, पर वो नििश्चत ही अशिष्टता होती। ख्ौर, अब कलाकारों की ओर से पत्रकारों के जहर स्नान संस्कार की बेला यह समापन की ओर थी।
संगोष्टी का समापन सेवानिवृत्त आईएएस व कलाविद् विजय वर्मा की शालीन वाणि के साथ हुआ। उन्होंने बड़े ही संयमित अंदाज में संतुलन बैठाया, जैसा कि एक औपचारिक अध्यक्ष का नैतिक कर्तव्य भी है। उन्होंनेे कहा कि आज की युवा कौम दरअसल पत्रकारिता का मतलब ही नहीं जानती, और ना ही आज के बाजारवाद में कभी जान पाएगी, तो उनसे इतनी बड़ी उम्मीद ही क्यों! उन्होंने सभी आलोचकों का मुंह बंद यह कहते हुए किया कि आप कलाकार पत्रकारिता से किस संतोष की उम्मीद करते हैं, सबसे बड़े असंतोषी तो आप कलाकार हैं। हलक के नीचे दो पैग मदिरा जाती नहीं कि सारा कलाकार बाहर आ जाता है। उन्होंने यह भा रेखांकित किया कि मीडिया भले ही अपना कर्तव्य ना निभा रही हो लेकिन उसका जो मूल दायित्व है वो तो निभा ही रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो शायद हम यहां जुट ही नहीं पाते। यह सामने नोटिस बोर्ड प्रभू जोशी की एग्जीबिशन की कवरेज से भरा पड़ा है, ये मीडिया की ही देन है। वरना हममें से किसी को भी पता नहीं चलता कि जोशी की एग्जीबिशन यहां लगी है। उन्होेंने मीडिया पर भी कटु टिप्पणी की, मगर संयमित अंदाज में। यकीन मानिए शब्द उनके थे पर मुझे ऐसा लग रहा था भाव मेरे थे। संगोष्टी का समापन मेरी ओर इशारा करते हुए इस बात के साथ हुआ कि यहां इकलौता नौजवान पत्रकार बैठा है जिसने अपनी बात रखी। प्रभू जोशी ने संगोष्टी के समापन की जो औपचारिक बयानबाजी की वो कुछ यूं थी कि ``सारी दुनिया की आलोचना करने वाला मीडिया कभी अपनी आलोचना स्वीकार नहीं करता.....`` यह कहते हुए वो मुस्कुरा रहे थे, और मैंने भी उनके इस वाक्य को अपनी मुस्कान देकर सहमति की मुहर लगा दी.....

अमित शर्मा
डेस्क इंचार्ज
बीटीवी न्यूज
पता-श्री राम विहार-ए,
मान्यावास, न्यू सांगानेर रोड
मानसरोवर, जयपुर-302020.
9829014088

Monday, February 16, 2009

दो line

आज के मेरे पहले पोस्ट में कहनी कहना चाहता हूँ मई मीडिया के उस रूप की जिससे हाउ सभी पीड़ित हैं मेरा फोकास उन अश्लील विगापन की और है जो कंही भी कभी भी आ जाते हैं...

Thursday, October 16, 2008

pahla panna

mera nam amit hai

Sunday, June 17, 2007

spark of saarc

hiiii
here is Amit Sharma